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Tuesday, October 23, 2012

!!!!!! मैं हूँ एक आम आदमी !!!!!!


मैं हूँ एक आम आदमी |
सब मेरी बात करते हैं |
मेरी फ़िक्र में वे चर्चाएँ आम करते हैं |
कोई फाइलों के कागज़ पे मेरी कहानी लिखता है,
तो कोई मुझे टोपी पे डाल पहनता है |
आम आदमी की बात हर ख़ास आदमी करता है|
हाँ मैं वही एक आम आदमी हूँ,
जिसकी सब बात करते हैं !!!

मेरी रोज की जिन्दगी ही मेरी लड़ाई है,
और वो सब मेरे लिए लड़ते हैं!
जब कुछ नहीं बदला सालों में,
क्या कोई बदल देगा कैमरें के सवालों से?
एक अथाह जिन्दगीगुमनाम चादर डाले जीता हूँ |
हाँ मैं जीता हूँ !
मैं वही एक आम आदमी हूँ,
जिसकी सब बात करते हैं !!!

'आम आदमीमेरा नाम नहीं,
मेरी कोई पहचान नहीं !
फिर क्यूँ आज सब मेरे जीवन पर नजरें डाल रहें ?
नहीं चाहिए मुझे चमक कैमरे कीऔर ना ही सभा की ताली |
है बस जिन्दगी एक आश्रामुझको जीने दो,
हूँ एक आम आदमीना बनाओ मुझे गाली !!!

Monday, August 20, 2012

मौत की बरात

अँधेरे का हुआ बसेरा, 
छिप गया कही सवेरा!
चिता भस्म की गंध से,
हुई अपावन वसुंधरा!
बेमोल हुआ मानव,
नंगी हो गई मानवता!
गंगा, ब्रह्मपुत्र के देश में,
बहने लगी लहू की धारा!
यह कैसी लगी आग, 
किसने लाई मौत की बरात!!!

दिल में भड़े थे अंगारे,
हाथों में थामी थी तलवार,
आँखों पे धर्म की पट्टी थी,
जुबा पे इंसानियत की ललकार!
लुट गया था जहाँ,
बिखरी पड़ी थीं खुशियाँ,
कदम कदम पे धब्बे थे,
बच्चे तक ले रहे थे सिसकियाँ!
टुटा था भारत सपनो का,
गम था बस अपनों का,
बाजार भी कम पड़ गया...
मांग था इतना कफनों का!
यह कैसी लगी आग,
किसने लाई मौत की बरात!!!

(Photo Source: Google Image, Search Word: Riots in India) 
(Hindi Typing: Google Transliterate Tool)                                  

Tuesday, May 29, 2012

हार....है क्या?

हार....है क्या जिससे डरता हूँ मैं?
वह तो बस एक ठहराव हैजिस पे संवरता  हूँ मैं!
हर हार से बढ़ता हूँ मैं!
हर हार से संभलता हूँ मैं!!
  
वो जिन्दगी क्या जो बस दौड़ परे?
थोड़ा चलेंथोड़ा रुके
और मोड़ प़े जो हम फ़िसल पड़ें,
क्या हुआ उससेउठ कर फिर भागे!
चलते रहेबस चल दिये.....
हर हार से बढ़ता हूँ मैं!
हर हार से संभलता हूँ मैं!!

हार संघर्ष का अंत नहींबस एक भाग है!
हार से होते नहीं हतास कभीकरते उसको पार हैं!
हार तो यलगार है,
आगे बढ़ते रहने की पुकार है,
हर हार से बढ़ता हूँ मैं!
हर हार से संभलता हूँ मैं!!

                                               - मुकुल प्रियदर्शी

Photo Source: Google Image, Search Word: Defeat

Wednesday, July 6, 2011

दम लगा के दौड़ ज़रा!!!

चल दम लगा के दौड़ ज़रा!!!
गलियों से, पगडंडियों पे,
राहें, नालें, कुचों से,
कल कल बहती नदियों से किनारों पे,
हरे हरे खेतों से.....
सर उठा, हाथ फैला....
दम लगा...
दम लगा के दौड़ ज़रा!!!

तितली पकड़,
हवा को जकर,
दुर 'आम के पेर' की ओर....
संग यारों के चल तो ज़रा,
कदमों को हिला,
खुद को कर ढीला....
दम लगा.......
दम लगा के दौड़ ज़रा!!!

खुला बदन, खाली कदम,
सर पर आश्मा सारा...
देख वो पानी के नाले से मुकुल भागा,
पकड़ उसे, पकड़ ज़रा...
वो पीछे पीछे राहुल भी भागा,
दम लगा.....
दम लगा के दौड़ ज़रा!!!
-मुकुल प्रियदर्शी

Mistakes in hindi writing could be attributed to my limited knowledge of google transliterate tool. I am aware of some of the mistakes but don't know how correct them. Any KT for the same is welcome :)

Tuesday, June 7, 2011

एक मेरा दिल है!

एक मेरा दिल है!
किधर बैठा है मेरे अन्दर, मुझे मालुम नहीं,
उसे देखा नहीं कभी, पर उसके होने का अहसास है!
उसे किसी से मुहब्बत नहीं, ना शायद किसी चीज की चाह है!
अँधेरे में भटकना उसका शौक,
और अथाह को अपना बनाने की चाह है शायद!
वह कभी मदद, तो कभी आंशु बन बहना चाहता है,
तो कभी दूसरों को गले लगा उन्हें सुनना चाहता है!
कभी मेरे क़दमों को सहसा रोक देता है,
तो कभी मुझे बहता छोर देता है !
जब कभी पूछता हूँ, क्युं करता है तु ऐसा...
तो डाल मुझे मजधार में,
खुद कुछ दूर खरा होता है, मुझे आगे बुलाता है,
बढने का हौसला दिलाता है!
यह मेरा दिल है.....
मेरे काबू में नहीं,
मुझे से अनगिनत सवाल करता हैं
पर यह वही तो है...
जो मेरे होने का एहसास दिलाता है!!!

-मुकुल प्रियदर्शी

Thursday, February 18, 2010

फिर 'बदल गया है तू' लोग ऐसा क्यूँ कहते हैं?

आज भी यादें आती हैं,
हवा पुरानी बातों को दोहराती है!
बारिश सावन में ही होती है,
और तारें तन्हाई में साथ जगते हैं!
आखों में सपने तैरते हैं,
और दिल में उम्मीद घर बना बैठते हैं!
सब वही है, सबकुछ वहीं है,
फिर 'बदल गया है तू' लोग ऐसा क्यूँ कहते हैं?

मस्तिष्क अभी भी डर का कोहरा लगाता है,
और शारीर अपनी बंदिशों में जकर लाता है!
सही गलत का पलरा, गलत को बढ़ा दिखाता है,
और पंडित हाथों की रेखाओं से भविष्य बताता है!
सब वही है, सबकुछ वहीं है,
फिर 'बदल गया है तू' लोग ऐसा क्यूँ कहते हैं?

**** Mistakes in hindi writing could be attributed to my limited knowledge of google transliterate tool. I am aware of the mistakes but could not correct it. It is not intentional.

Wednesday, October 28, 2009

Lamhe chura yaadein banata jaata hoon.......

जिंदगी की अनजान राहों पे....अच्छे बुरे वक़्त से गुजरता हुआ....
खुलते पन्नो में अपनी कहानी पढता हुआ...
नये साथी बनाते, तो कुछ साथिओं को पीछे छोरता हुआ…..
कभी खुद को समेटते, तो कभी किसी को संभालता हुआ…
ख़रा युही देखता हूँ सालों को बीतता हुआ……
इन सालों में से कुछ लम्हें चुरा लेता हूँ…
लम्हों को पीरो साथ साथ यादें बनाता जाता हूँ!!!

सरक के पार रहने वाली बुडिया को इस दुनिया से जाते देखता हुआ,
बदलते मौसम और कम होती इंसानियत को निहारता हुआ….
मासूम बचपन को धीरे धीरे खोता हुआ……
हँसता हुआ…..रोता हुआ…
इन सालों में से कुछ लम्हें चुरा लेता हूँ…
लम्हों को पीरो साथ साथ यादें बनाता जाता हूँ!!!

सालों बाद…जब बैठूँगा अकेले में अपने हाथों की झुरियूं को निहारता हुआ….
तब कभी खोलूँगा अपनी यादों की पोटली….किसी को भूलता तो किसी को तरसता हुआ…….
यादों की सुनहरी तस्वीर पे अपनी छाप खुरेद्ता हुआ…….
चेहरे पे हंसी लायेंगी यह सब बातें……
हंसुंगा….खुश हो लूँगा....आने वाले वक़्त से डरता हुआ....
इसीलिए इन सालों में से कुछ लम्हें चुरा लेता हूँ…
लम्हों को पीरो साथ साथ यादें बनाता जाता हूँ!!!

- Mukul Priyadarshi

**** Mistakes in hindi writing could be attributed to my limited knowledge of google transliterate tool. I am aware of the mistakes but could not correct it. It is not intentional.

Friday, May 22, 2009

सपनें उम्मीद बन जाते हैं.....

सपनें उम्मीद बन जाते हैं,
आँशु फरियाद की शक्ल बनाते हैं!
चीखता है दिल,
और लम्हें तेरी याद बन आते हैं!
धङकनें थम सी जाती हैं,
खामोशी लाचारी का शबब बन चिढाती है!
हवाएँ पुछती हैं सवाल,
और आकाश घूरता है मुझे!
बुत बन मैं,
शून्य को निहारता जाता हूँ,
क्युँ की यह गलती सोच सोच पछताता हुँ!!
-मुकुल प्रियदर्शी

Saturday, March 7, 2009

मैं कौन....

मैं कौन...

बिशवास मन की,

उम्मीद दिल की,

चमक आँखों की,

और गर्मी बाहों की!

मैं हूँ जीत जवान की,

काबु बलवान की,

हूँ मैं इन्तजार पयार की,

और इन्तहा ऐतबार की!

मैं कौन....

खुशबू हवा की,

आराम दवा की,

बहाव नदी की,

और सोच कवि की!

मैं हूँ युद्ध जीवन मरण की,

चरण गुरु की,

और प्रतिज्ञा कारन की!

मैं कौन....

'मुकुल' कहे जीवन ऐसा जीना,

'मैं कौन...' की खोज में राह ऐसा बनाना,

'हो जीवन संदेश मेरा' 'मुकुल को बस ख़ाक में हैं मिल जाना!

-मुकुल प्रियदर्शी

Tuesday, December 9, 2008

"Aisi Hogi Hamaari Mulaakat"

ऐसी होगी हमारी मुलाक़ात

ऐसी होगी हमारी मुलाक़ात
जब चाँद बिखरेगा चाँदनी,
होगी निशा बावली,
फूलो से खिलेंगे सपने,
और होगी बरसात!
मिलेंगे ख़ुद से हम तुम,
ऐसी होगी हमारी मुलाक़ात!

हवा रोक रफ़्तार,
जब साथ लाइएगी महक सावली!
मिलेंगे रूह जब अपने अंजाम से,
और आखों से होगी बात!
मिलेंगे ख़ुद से हम तुम,
ऐसी होगी हमारी मुलाक़ात!

खामोशी छाएगी फिजा में,
और आसमा में होंगे तारे बेशुमार!
जब रुक जाएंगे काटें घड़ी के,
और ना बीतेगी रात!
मिलेंगे ख़ुद से हम तुम,
ऐसी होगी हमारी मुलाक़ात!
- मुकुल प्रियदर्शी

Tuesday, October 21, 2008

Todo Bhaarat!!!

धरतीपुत्र की लल्कार लगाओ,

जलते देश की आग भरकाओ!

टूटे देश को जोड़ा था लौपुरुष ने,

तोड़ उसे फिर एक बार, ख़ुद की नज़र से नज़र तो मिलाओ!

कश्मीर की कहानी सुनी,

असम की है अपनी परेशानी!

तमिल श्रीलंका रोते हैं,

हम पंजाब को भी कभी खोते हैं!

भुत छोर वर्तमान में आओ,

उत्तर प्रदेश बिहार से घबराओ!

बंगाल में ना कोई काड़खाना लगाओ,

महाराष्ट्र में घुसने की ना हिम्मत जुटाओ!

यह है भारत सपनो का,

इतिहास और आज से हारे,

भविष्य को खड़ा खड़ा निहाड़े!

छोड़ दो उम्मीद, तोड़ दो सपने,

गैर बन बैठे हैं अपने!

बांधो मुट्ठी, हाथ फैलाओ,

धरतीपुत्र की लल्कार लगाओ,

जलते देश की आग भरकाओ!!!

- मुकुल प्रियदर्शी

Dedicated to all the short sighted politicians who are on the verge of dividing India for their vote bank politics and media hyped personality.

Thursday, January 17, 2008

Ek Subah Ek Gadhe Saath- A Poem

आज मेरी एक गधे से मुलाक़ात हुई,
आ खरा हुआ सामने, जाने ऐसी क्या बात हुई?
मैंने उसको निहारा, करीब जा के उससे बोला- " भाई गधे!,
क्यों रोका मेरा रास्ता? क्या मेरे से कोई घात हुई?"
गधे ने पहले मुझको घुरा, फिर धीरे से मुझ से बोला-" हे मनुष्य!,
जब काट डाले जंगल, छीन लिए मेरे घर तब तो विकाश की बात हुई|
अब मैं किधर जाऊ? कहाँ से जंगल उगाऊं?"
गधे की बातों मी था दम, मुझे लगा मेरे आकरें ही हैं कम|
कुछ देर यूं ही खरा रहा, खामोश सा बना रहा|
रुक कुछ पल मैं बोला-" गधे!, मनुष्य को क्यों दोष लगाता है?
यह तो भगवान् का वरदान है जो जनसंख्या बढ़ता जाता है"
गधे ने भी कमर कासी, हामी भर मुझे से बोला- "बढ़ते जनसंख्या पे
रोक क्यों नही लगाते हो? क्यों दिनभर टीवी पे गला फार कंडोम कंडोम चिलाते हो?"
गधे ने हुंकार भरी, आंखों मी आँखें डाल मुझ पे धिकार भारी|
मैं भी कैसे जाता हार? दिल दिमाग की दौड़ लगा गधे को नीचे दिखाने की चाल चली|
मैं बोला-तू मुझे क्या सिखाता है, ख़ुद तो गधा कहलाता है| हस्ते हैं सब तुझ पे
और तू बोझ डाले चुप चाप चलता जाता है|"
जान अपनी जीत मैं अपने ऊपर इतराया|
देख मेरी ओर गधा भी मुस्कुराया और बोला- माना हँसते हैं सब मुझ पे,
पर तू क्यों इतराता है, ख़ुद के काम को दूसरो को दे सताता है|
काट डाले जंगल, जानवरों को गुलाम बनायाऔर नस्ट कर दिया पृथ्वी को|
ख़ुद तो मरेगा ही, क्यों हमे भी मारने पे तुला है?"
गधा लड़ने को था उतारू, फिर मैंने बगले झांकी
देख आती इन्फोस्य्स की बस को, गधे के बगल से रास्ता निकाली|
गधा देखता रहा जाते मुझको और फिर बरी सी हुंकार मारी|
उस घटना से आह़त 'मुकुल' ने भी बस मे कविता की कुछ पंगतिया लिख डाली|